छोटे-छोटे बढ़ते कदमों की कहानी
समस्तीपुर के एक छोटे से गाँव में एक गरीब परिवार रहता था। उस परिवार में केवल तीन लोग थे। दो भाई और उनके पापा। दोनों भाई काफी छोटे थे, उन दोनों भाईयों के लिए खाना उनके पापा हीं बनाते थे। कुछ समय बाद जब दोनों भाई थोड़े बड़े हुए, बड़ा भाई थोड़ा शांत स्वाभाव का था और छोटा भाई थोड़ा शरारती और चंचल। गाँव वाले दोनों भाई को प्यार से राम लक्ष्मण कह कर पुकारते थे। रात को उनके पापा खाना खिलाने के बाद दोनों को स्लेट पर पढ़ाया करते थे। दोनों भाई पढ़ने में बहुत अच्छे थे। उनके पापा समझ गए कि दोनों बच्चे पढ़ने में होशियार हैं और वे पढ़ना चाहते हैं। पर उनके पास पढ़ाने और ट्यूशन की फीस भरने के पैसे नहीं थे और गाँव के सरकारी स्कूल में अच्छी पढ़ाई नहीं होती थी । वह पुरे दिन अपने बच्चों में लगे रहते थे ताकि बच्चों को कोई कमी महसूस न हो।
एक रात को बच्चों को खाना खिलाने के बाद पापा ने बच्चों से कहा – अगर मैं काम करने के लिए बाहर जाऊँ तो तुम दोनों भाई रह लोगे ? इस पर छोटे भाई ने कहा कि पापा, अगर आप काम नहीं करोगे तो हम खाना कहाँ से खाएँगे ? यह सुनकर पापा समझ गए कि मेरे बच्चे काफी साहसी हैं। फिर वह काम करने के लिए जाने लगें, वे शादियों में बैंड पार्टी में काम करते थे इसलिए रात-2 भर बाहर रहने लगे। दोनों भाई घर पर अकेले सो जाया करते थे और उनके पापा को भी डर लगा रहता था क्योंकि बच्चे अकेले थे , पर और कोई चारा भी नहीं था। फिर कुछ दिन बाद पापा ने दोनों बच्चों को स्कूल और ट्यूशन भेजना शुरू किया और स्कूल के मास्टरजी ने कुछ दिन बाद बोला कि आपके बच्चे पढ़ने में बहुत अच्छे हैं। आप इन्हें किसी शहर ले जा कर पढ़ाइये। वहाँ अच्छी पढ़ाई होती है। यह सुनकर पापा कुछ ही दिन बाद अपने बच्चों को लेकर उत्तर प्रदेश के ग़ाज़ियाबाद शहर में आ गए।
कुछ दिनों बाद वहाँ झुग्गियों के पास पार्क में कुछ लोग मुफ़्त में पढ़ाने के लिए आते थे। दोनों में से छोटा भाई एक दिन वहाँ पढ़ने चला गया और बड़ा भाई घर पर ही था। फिर एक दिन छोटे भाई ने बड़े से कहा – तुम भी चलो , वहां बहुत अच्छा पढ़ाते हैं। फिर दोनों भाई साथ जाने लगे और वहाँ पर झुग्गी के और भी काफी बच्चे पढ़ने आते थे। दोनों भाइयों को पता भी नहीं था कि उनकी ज़िन्दगी अलग मोड़ लेने वाली है। पढ़ाने वालों ने दोनों भाइयों का दाख़िला एक पास के प्राइवेट स्कूल में करा दिया और उनकी फीस भी वे खुद ही भरते। पढ़ाने वाले भी खुद कॉलेज में पढ़ते थे और अपना कीमती समय निकालकर गरीब बच्चों को पढ़ाने आते थे ताकि जिस हालत से उनके मम्मी पापा गुज़रे हैं वो बच्चों को न देखना पड़े। उनकी इस पढ़ाने की शुरुआत दो लोगों ने की थी। समीक्षा श्रीवास्तव और रोहित सिंह। फिर उन्होंने अपने कॉलेज के बाकि दोस्तों को जोड़ना शुरू किया। इनके साथ दो, चार, दस, बीस, पचास लोग जुड़ते चले गए। आज इनलोगों के साथ 400 से 500 लोग होंगे और इन्होंने अपने समूह को बहुत प्यारा सा नाम दिया है ‘Light de Literacy (LDL) – एक आशा नवनिर्माण की’। ये केवल इन बच्चों को पढ़ाते ही नहीं हैं बल्कि इनके साथ हर त्यौहार मनाते हैं और ढेरों खुशियाँ बाँटते हैं। ये बच्चों को अपने परिवार के हिस्से की तरह मानते हैं। बच्चे इनके लिए छोटे भाई बहन जैसे हैं। ये दोनों भाई या बाकी बच्चे पढ़ाने वालों को सर या मैडम नहीं बुलाते, वे इन्हें भैया-दीदी कहते हैं क्योंकि बच्चे भी इन्हें अपना बड़े भाई बहन ही मानते हैं। आज दोनों भाई बहुत खुश हैं क्योंकि वे दोनों भी उन्हें अपने बड़े भाई और दीदी मानते हैं। अगर इन्हें भैया -दीदी जैसे लोग नहीं मिलते तो आज न इन्हें अच्छी पढ़ाई मिल पाती और न हीं इन्हें देश और दुनिया के बारे में कुछ पता चल पाता।इसलिए दोनों भाई भैया दीदी की हर बात मानते हैं और मानते रहेंगे। आज भी दोनों भाई LDL से ही पढ़ते हैं और वे दोनों बहुत खुश हैं
~ मनीष
Sach btau to ise padhte padhte aakhein bhar ayi… Kyunki iss chote se lekh n mano hume humri koshisho ki manjil dikha di… Hume bataya ki hum jo kr rahe h… Usse bhle hazaro ko frk nhi pdga… Par jitni ko hum padhate h… Shyd utni jindagi badal paa rahe?.. Aur aage bhi badalte rahenge.
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A proud member of LDL
Memories with these kids are everlasting. They have given us so much in our life.
Wow?
ये नन्हे बच्चों की कहानियाँ दिल में घर कर जाती हैं।
Beautiful ❤
Light de literacy has given clear vision to many. Reading such stories gives immense pleasure. Good luck Light de literacy team, keep doing this good work.?
Well done ?
???